भाजपा और उसके सबसे पुराने साथियों में शामिल शिरोमणि अकाली दल (SAD) के बीच अटूट रिश्ता आखिर टूट गया। कुछ दिन पहले ही अकाली दल ने संसद में लाए गए कृषि संबंधी विधेयकों को लेकर सरकार छोड़ दी थी और अब उसने राजग (NDA) से अलग होने की घोषणा कर दी है। अकाली दल का अलग होना भाजपा के लिए एक बड़ा झटका है, क्योंकि उसके सबसे विश्वस्त सहयोगियों में शामिल दो प्रमुख दल शिवसेना और अकाली दल अलग हो चुके हैं।
अकाली दल के शीर्ष नेता प्रकाश सिंह बादल अधिकांश मौकों पर कहा करते थे कि भाजपा व अकाली दल का रिश्ता नाखून और मांस का है जो कभी अलग नहीं हो सकता है, लेकिन अब दोनों दल अलग रास्ते पर चल पड़े हैं। अकाली दल ने इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया है। पार्टी के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने कहा है कि जब किसानों के मुद्दे पर केंद्र सरकार ने विरोध के बावजूद संसद में बिल लाने का फैसला किया तब उसने सरकार छोड़ दी थी। राजग से अलग होने के पहले उन्होंने पार्टी की बैठक में अपने सभी कार्यकर्ताओं और किसानों से चर्चा की, उसके बाद फैसला किया।
भाजपा के लिए अपने सहयोगियों के बीच विश्वास कायम रख पाना चुनौती बनता जा रहा है। शिवसेना उससे पहले ही अलग हो चुकी है। जदयू के साथ उसके रिश्ते खट्टे मीठे रहे हैं और एक बार उसका साथ छोड़ कर चला भी गया था। रामविलास पासवान की लोजपा भी डवांडोल स्थिति है में है। इस समय भाजपा को भले ही सहयोगी दल इतने महत्वपूर्ण न लग रहे हो क्योंकि केंद्र में उसकी अपने दम पर सरकार है। कई राज्य में उसकी अपनी सरकार हैं, लेकिन भविष्य के लिए उसको भरोसेमंद मजबूत साथी मिलना मुश्किल हो सकते हैं। क्योंकि उसके सबसे पुराने और मजबूत सहयोगी दलों में दो प्रमुख उससे अलग हो चुके हैं जो कहीं ना कहीं विचारधारा के स्तर पर भी उसके साथ थे।
भाजपा के लिए अकाली दल का अलग होना इसलिए भी एक बड़ी चुनौती है क्योंकि वह किसानों के मुद्दे पर अलग हुआ है। किसानों का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जो चुनाव को प्रभावित करता है। अब जबकि बिहार के विधानसभा चुनाव और विभिन्न राज्यों में होने वाले उपचुनाव सामने है तब अकाली दल का किसानों के मुद्दे पर जाना उसके लिए मुसीबत बन सकता है। हालांकि भाजपा नेता किसानों के बीच तथ्य रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन राजनीतिक माहौल सड़कों पर उतरे किसान समस्याएं खड़ी कर रहे हैं।
1998 से NDA का हिस्सा था अकाली दल
वर्ष 1998 में जब लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी ने एनडीए बनाने का फैसला किया था, तो उस वक्त जॉर्ज फर्नांडीज की समता पार्टी, जयललिता की अन्नाद्रमुक, प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाला अकाली दल और बाला साहेब ठाकरे की शिवसेना इस संगठन में शामिल हुए थे। समता पार्टी का बाद में नाम बदलकर जदयू हो गया। जदयू और अन्नाद्रमुक एनडीए से एक बार अलग होकर वापसी कर चुकी है। शिवसेना अब कांग्रेस के साथ है। अकाली दल ही ऐसी पार्टी थी, जिसने अब तक एनडीए का साथ नहीं छोड़ा था।
अकाली दल पर क्या दबाव था?
अकाली दल के लिए मोदी सरकार के कृषि विधेयक गले की फांस बन गया था। क्योंकि पार्टी को लग रहा था कि अगर वह सरकार के साथ गए तो पंजाब के बड़े वोट बैंक किसानों से उसे हाथ धोना पड़ता। पंजाब के कृषि प्रधान क्षेत्र मालवा में अकाली दल की पकड़ है। अकाली दल को 2022 के विधानसभा चुनाव दिखाई दे रहे हैं। 2017 से पहले अकाली दल की राज्य में लगातार दो बार सरकार रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 सीटों में से अकाली दल को महज 15 सीटें मिली थीं। ऐसे में 2022 के चुनाव से पहले अकाली दल किसानों के एक बड़े वोट बैंक को अपने खिलाफ नहीं करना चाहता।