सम्बंध में लगाव होना चाहिए, केवल बंधन नहीं !

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भारत में वैवाहिक संबंधों में कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जो बेहद चिंतनीय है। उच्चतम न्यायालय के हालिया दो निर्णय स्पष्ट इशारा कर रहे हैं कि विवाह संबंधों का टकराव बेहद गंभीर सामाजिक बीमारी के रूप में उभर रहा है। दरअसल, उच्चतम न्यायालय में एक व्यक्ति ने याचिका लगाई थी कि न्यायालय उसकी पत्नी को उसके साथ रहने का आदेश दे, लेकिन याचिका खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि पत्नी, पति की निजी संपत्ति नहीं है। इससे कुछ ही दिन पहले एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक पत्नी की संबंध पुनस्र्थापना याचिका ठुकरा दी थी। इस महिला ने पति पर अनर्गल आरोप लगाकर उसकी प्रतिष्ठा व करियर को तबाह कर दिया था, इसके बावजूद वह पति के साथ रहना चाहती थी।

देश की सर्वोच्च अदालत के सामने आए ये दोनों मामले ऐसे थे, जहां संबंधों में अति कटुता होने के बावजूद एक साथी संबंध विच्छेद नहीं चाहता था, ताकि वह अपने साथी को मानसिक तौर पर प्रताड़ित कर सके। क्या वैवाहिक संबंधों का यूं रणक्षेत्र में बदल जाना किसी भी रूप में उचित है? आदर्श स्थिति तो यही है कि विवाह होने पर उसे निभाया जाए, परंतु क्या यह व्यावहारिक पक्ष है? क्यों दो लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे विपरीत विचारधारा होने और हद दर्जे तक मनमुटाव की स्थिति में भी एक-दूसरे के साथ जीवन व्यतीत करें। दो व्यक्ति, जो एक-दूसरे से किसी भी मुद्दे पर सहमत न हों और उनके बीच कड़वाहट व घृणा हो, तो उनका एक छत के नीचे रहना किसी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।

कई शोध यह बताते हैं कि माता-पिता के बीच निरंतर होते झगडे़ बच्चों के भीतर डर और अवसाद पैदा करते हैं। इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि वैश्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक-नैतिक मूल्यों में आए बदलाव के चलते विवाह दायित्वों का निर्वहन नहीं, बल्कि अधिकारों की प्राप्ति का युद्धक्षेत्र बन गया है।

वैवाहिक संबंधों के निर्वहन में पत्नी या पति में से कोई एक स्वयं को अक्षम पाता है और संबंधों को छोड़ना चाहता है, तो ऐसी स्थिति में दूसरा कानूनी और सामाजिक दबाव बनाकर साथ रहने को विवश करता है। इस प्रक्रिया में कई बार सामाजिक और मानसिक क्षति पहुंचाने की चेष्टा करता है। न्यायालय के समक्ष ऐसे कई मामले आए हैं, जिनमें विवाह के बोझ बनने के बाद भी कोई एक इसलिए तलाक के लिए तैयार नहीं होता, क्योंकि वह गलत मानसिकता के साथ दबाव या तनाव बनाए रखना चाहता है। अनेक मामलों में पति या पत्नी एक-दूसरे के खिलाफ सामाजिक या सांविधानिक नियम-कायदों का दुरुपयोग करते हैं। चूंकि संबंधों में माधुर्य की समाप्ति तलाक लेने की वजह के रूप में हिंदू विवाह अधिनियम में सम्मिलित नहीं है, इसीलिए ऐसे हालात पैदा किए जाते हैं, जो तलाक का आधार बन सकें। यह स्थिति असहनीय पीड़ा और अवसाद को जन्म देती है। हम आज भी इस सच को मानने में हिचक रहे हैं कि जो लोग दमघोंटू माहौल में भी शादी बचाने की पैरवी करते हैं, वे अवसाद में धकेलने का रास्ता दिखाते हैं। आज रिश्तों को हिंसा तक पहुंचने से रोकना जरूरी है।

यह वक्तव्य हास्यास्पद सा लगता है कि भारतीय समाज में पश्चिमी संस्कृति की तरह संबंध विच्छेद नहीं होते। विश्व का कोई भी समाज तलाक की पैरवी नहीं करता, लेकिन हिंसा की नौबत भी कोई नहीं चाहता। कई बार कड़वाहट भरे रिश्तों को बच्चों के चलते निभाने की नसीहतें दी जाती हैं, लेकिन क्या यह स्थिति वाकई बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए हितकारी होती है? देखने में आया है कि आपसी रिश्तों की कड़वाहट के चलते मां और उसके घरवाले बच्चों को पिता के खिलाफ कर देते हैं। ब्रिटेन में 2008 में 12,877 बच्चों पर हुए शोध में पाया गया था कि मां-बाप के बीच तनावग्रस्त माहौल की तुलना में बच्चे एकल अभिभावक के साथ स्वयं को अधिक खुश महसूस करते हैं। रिश्तों की जटिलता बताती है कि यदि दो लोगों के जीवन में तालमेल नहीं है, तो उनका अलग होना ही उनके और समाज के लिए हितकारी है। संबंध विच्छेद के संकुचित आधार को बदलने के लिए अब कानून में बदलाव बहुत जरूरी हैं। अनचाहे रिश्तों में आक्रामकता या हिंसा को रोकना ही चाहिए। वैवाहिक संबंधों को बहाने नहीं, मधुरता चाहिए ।

शालिनी सिंह (विश्लेषक)

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