हर इंसान को अपनी पडी है।
दृष्टि हमेशा दूसरों पे गड़ी है।
मन की आंखे बंद है उसकी।
और चर्म चक्षु खुले हुए है।।
सच- झूठ, झूठ-सच मे लगा हुआ है।
दुसरो में अवगुण ढूंढता फिरा है।
सुख दुःख के झूले में झूलता रहा हैं।
दिल मे उसने देखा नही है।
मन को अपने टटोला नही है।।
आनंद का सागर मन में उथला है।
पर आनंद से सदा दूर रहा है।
मन के बहकावे से बहकता चला है।
अस्तित्व को अपने भुला हुआ है।
दुसरो को सुधारने में लगा हुआ है।
खुद में बुराइयों के अंबार लगा है।
खुद की बुराइयों को खुद ही मिटा ले।
मनुष्य है तो मनुष्यत्व पा ले।
तुझमे जो है वही है तेरा।
बाकि तो संग में लगा है झमेला।
हृदय की गहराइयों में गोते लगाले।
खुद के स्वरूप के दर्शन पा ले।
__मधु”मृणाल” व्याख्याता