अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में इस साल होने वाले निकाय चुनाव ‘लिटमस टेस्ट’ की तरह ही होंगे। आम चुनावों में हिस्सा लेने वाले 15 करोड़ वोटरों का एक चौथाई से ज्यादा वोटर निकाय चुनावों में मतदाता है। इसलिए राजनीतिक जानकार उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों को सियासी नजरिए से लोकसभा से पहले का लिटमस टेस्ट जैसा ही मान रहे हैं। फिलहाल निकाय चुनाव में पिछड़ों का आरक्षण तय करने के लिए गठित उत्तर प्रदेश राज्य स्थानीय निकाय समर्पित पिछड़ा वर्ग आयोग ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को रिपोर्ट सौंप दी है। अब इस रिपोर्ट को उच्चतम न्यायालय में पेश किया जाएगा, जिसके बाद निकाय चुनाव की प्रक्रिया तय की जाएगी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सौंपी रिपोर्ट
अनुमान लगाया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में निकाय चुनाव अप्रैल के अंतिम सप्ताह से लेकर मई महीने के बीच हो सकते हैं। निकाय चुनाव उत्तर प्रदेश में अब इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि उसके कुछ महीने बाद ही उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनावों की पूरी तैयारियां शुरू हो जाएंगी। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि दरअसल यह चुनाव होने तो जनवरी में थे, लेकिन पिछड़ों के आरक्षण प्रक्रिया न सही होने के चलते इस चुनाव को रोक दिया गया था। अब राज्य सरकार को आयोग की ओर से निकाय चुनावों में पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए अपनी पूरी रिपोर्ट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सौंप दी है। सियासी जानकार बताते हैं कि जल्द ही इस रिपोर्ट को कोर्ट में पेश किया जाएगा और उसके बाद चुनाव की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है।
आयोग की ओर से सौंपी गई रिपोर्ट के बाद से उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर से राजनीतिक हलचल बढ़ गई है। सभी राजनीतिक दल निकाय चुनावों को लोकसभा चुनावों से पहले का लिटमस टेस्ट मानते हुए अपनी पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरने की कवायद में जुट गए हैं। राजनीतिक विश्लेषक किशोर सिन्हा कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले के बड़े चुनाव के तौर पर ही देखे जा रहे हैं। वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के आम चुनावों में मतदान करने वाले तकरीबन 15 करोड़ वोटर हैं। जबकि निकाय चुनावों में उसके एक चौथाई से ज्यादा तकरीबन साढ़े चार करोड़ वोटर हैं। वह कहते हैं कि ऐसे में एक चौथाई से ज्यादा वोटरो की संख्या और उनके निकाय चुनाव के परिणाम लोकसभा के चुनावों का माहौल तो निश्चित रूप से बनाएंगे ही। यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल निकाय चुनावों की तैयारी में एक बार फिर से जुट गए हैं।
पिछड़ों की राजनीति को लेकर सभी दल आक्रामक
दरअसल उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने दिसंबर में ही निकाय चुनावों के लिए ओबीसी आरक्षण की अधिसूचना जारी कर दी थी। इस अधिसूचना के बाद में एक याचिका दाखिल हुई थी। जिसमें जिक्र किया गया था कि सरकार ने ओबीसी आरक्षण सूची को जारी करने में ट्रिपल टेस्ट का फॉर्मूला नहीं अपनाया है। हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुसार ओबीसी आरक्षण सूची बनाने को सरकार से कहा था। अदालत ने यूपी सरकार को यह तक सलाह दी थी कि वह चाहे तो बगैर ओबीसी आरक्षण के यह चुनाव करवा सकती है। इस पूरे मामले में जब उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट गई, तो कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी। जब यह पूरा घटनाक्रम हुआ तो उत्तर प्रदेश की राजनीति बहुत गर्म हो गई। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि उत्तर प्रदेश जैसी बड़ी ओबीसी आबादी वाले राज्य में कोई भी दल बगैर आरक्षण के कैसे चुनाव करा सकता है। क्योंकि अब नए सिरे से सारी प्रक्रिया होगी इसलिए योगी सरकार पिछड़ों में एक संदेश देने की कोशिश तो करेगी ही।
सियासी जानकारों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में बीते कुछ समय से पिछड़ों की राजनीति को लेकर सभी दल बहुत आक्रामक रूप से सामने आए हैं। समाजवादी पार्टी तो लगातार पिछड़ों को लेकर सरकार पर हमलावर है। समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने जिस तरीके से रामचरितमानस पर विवादित बयान देने के साथ-साथ पिछड़ी जातियों का कार्ड खेलना शुरू किया, वह न सिर्फ निकाय चुनाव बल्कि लोकसभा चुनाव तक के लिए सियासी माहौल को गर्म करने वाला है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि योगी सरकार ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख करके अपनी पार्टी की मंशा स्पष्ट कर दी थी। राजनैतिक विश्लेषक कहते हैं कि यह बात तो सच है कि बगैर आरक्षण के चुनाव जैसी प्रक्रिया संभव नहीं थी, लेकिन इसका कोई बड़ा असर उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में सीधे तौर पर पड़ेगा ऐसा फिलहाल कुछ नहीं दिख रहा है।
विशेष रिपोर्ट-
अजय क्रांतिकारी
‘पॉलिटिकल एडिटर’ -ELE India News