प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मंत्रिमंडल में किए गए बड़े फेरबदल को सियासी जानकार अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं। कुछ जानकारों का कहना है कि कैबिनेट की बड़ी ‘सर्जरी’ कर पीएम मोदी ने केवल अपनी सरकार ही नहीं, बल्कि भाजपा को भी नुकसान से बचा लिया है। अगर वे इस ऐसा नहीं करते तो आगामी चुनावों में पार्टी को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ता।
भाजपा के पारंपरिक मुद्दों से कितना कुछ हासिल हुआ है या होगा, पीएम मोदी और भाजपा को इसका अहसास हो चुका है। पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने बहुत कुछ बयां कर दिया है। अगले साल के शुरू में होने वाले यूपी और पंजाब के विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए दलदल वाली स्थिति है। कोरोनकाल में केंद्र सरकार के अलावा भाजपा को भी आलोचना का शिकार होना पड़ा।
दरबारी ज्यादा एकत्रित हो गए थे
जानकारों का यह भी कहना है, पार्टी में कुछ ऐसे नेताओं का एक समूह खड़ा हो रहा था, जो केवल मुद्दों पर बातचीत करना पसंद करता है। इस समूह को लग रहा था कि पीएम मोदी के आसपास ‘कारीगरों’ की बजाए ‘दरबारी’ ज्यादा हो गए हैं। पीएम मोदी ही नहीं, बल्कि अमित शाह को भी यह अंदाजा था कि पार्टी को लेकर इस समूह की सोच अभी नहीं बदली गई तो 2024 में केंद्र की सत्ता में वापसी करना मुश्किल हो जाएगा।
ये हैं पांच मुख्य फायदे
राजनीति के जानकार प्रो. आनंद कुमार कहते हैं, पिछले कुछ समय से पीएम मोदी ही नहीं, बल्कि पार्टी की छवि को भी नुकसान पहुंच रहा था। देश में बढ़ती महंगाई, सरकारी कर्मियों में वेतन भत्तों को लेकर नाराजगी, कोरोना की पहली और दूसरी लहर में सरकारी अव्यवस्था का आलम, किसानों का मसला और निजीकरण की लहर, ये मुद्दे किसी न किसी तरह आम लोगों से ताल्लुक रखते हैं। इन्हें लेकर विपक्ष के हमले तेज होते जा रहे थे। खासतौर पर कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन, अस्पतालों में बेड की कमी, दवाएं, रोजगार और वैक्सीन जैसे मामले में सरकार घिर रही थी। इन सबसे ध्यान हटाने के लिए कैबिनेट में बदलाव जरूरी था। ये बात तो सरकार भी मानती है कि काम ठीक तरह से नहीं हुआ। पुराने मंत्रियों की छुट्टी और नए सदस्यों को शामिल करना अनिवार्य हो गया था।
वैक्सीन को लेकर आई परेशानी, तो दिया सख्त संदेश
कोरोनाकाल में सरकार पर कई तरह के सवाल खड़े हो रहे थे। वैक्सीन के मामले वैश्विक स्तर पर मोदी सरकार के समक्ष परेशानी आई। मरीजों में वैक्सीन का लेकर भय की स्थिति बन गई। कई राज्यों में लोग कोरोना वैक्सीन से दूर भागने लगे। हालांकि सरकार ने अपने प्रचार माध्यमों और दूसरी व्यवस्थाओं की मदद से लोगों को समझाया कि वैक्सीन जरूरी है। अनेक जगहों पर सरकार की बात सुनी गई। लोग वैक्सीन लगवाने के लिए आगे आने लगे। इस बीच वैक्सीन की सप्लाई को लेकर बवाल मच गया। गैर भाजपा शासित राज्यों की तरफ से पर्याप्त वैक्सीन न मिलने के आरोप लगने लगे। कोरोना की दूसरी लहर में लोगों ने इतने शव देखे हैं कि अब वे स्वास्थ्य सेक्टर के मामले में कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। लोगों का गुस्सा शांत करने और उन्हें यह भरोसा दिलाने के लिए कि सरकारी क्षेत्र में लापरवाही करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा, कैबिनेट विस्तार करना जरूरी था।
बंगाल चुनाव से लिया सबक, बदली रणनीति
भाजपा ने इस बार पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों में चुनाव जीतने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया था। कोरोनाकाल में जब दूसरे देशों में लोग घरों के अंदर दुबके हुए थे तो खुद पीएम मोदी और उनकी कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य प्रचार के लिए आगे आए। जमकर रैलियां और रोड शो हुए। भाजपा को जीत की उम्मीद थी। हालांकि पार्टी इन चुनावों के जरिए कुछ मुद्दों का टेस्ट करना चाहती थी। भाजपा की स्थापना से लेकर अब तक दो सबसे बड़े मुद्दे रहे हैं। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 के विवादित प्रावधानों की समाप्ति और राम मंदिर का निर्माण। पांच राज्यों के चुनाव में ये दोनों मुद्दे नहीं चल सके। इससे पार्टी को गहरा आघात पहुंचा। पीएम मोदी और भाजपा के सामने 2022 और 2024 है, इसलिए तुरंत कैबिनेट विस्तार की योजना बनाई गई। भाजपा और इसके नेताओं यह अहसास हो चुका था कि लोग पारंपरिक मुद्दों पर नहीं, बल्कि आज की समस्याओं के समाधान को देखकर वोट करते हैं।
‘दरबारियों’ को किया किनारे, 2022 व 2024 की तैयारी
पार्टी और सरकार में बड़े ओहदों पर बैठे अनेक नेताओं को यह लगने लगा था कि उन्हें कोई नहीं छेड़ेगा। इसी सोच की वजह से वे लोग ‘दरबारी’ बन बैठे थे। न तो सरकार में उनका काम संतोषजनक था और न ही पार्टी स्तर पर वे कुछ कर पा रहे थे। पार्टी का एक वह वर्ग जो व्यवस्था में बदलाव का समर्थक था, ये सब देखकर निराश हो गया था। उन्हें लगता था कि पार्टी में केवल दरबारियों की ही पूछ है। काम करने वालों को कोई नहीं पूछता। पार्टी ने इस बाबत कई राज्यों में सर्वे भी कराया। वहां पर भी यह बात सामने आई कि पार्टी के भीतर ही दो सोच वाले कार्यकर्ता उभर कर सामने आ रहे हैं। जब यह बात दिल्ली में बैठे नेताओं को पता चली तो वे तुरंत मतलब पर आ गए। मोदी और शाह, जान गए कि मौजूदा सिपाहियों के जरिए 2022 और 2024 की राजनीतिक जंग नहीं जीती जा सकती।
जो काम करेगा उसका होगा सम्मान
पीएम नरेंद्र मोदी ने जब 2014 में पहली बार पीएम पद संभाला तो कई वरिष्ठ नेता पार्टी से दूर हो चले थे। यहां पर केवल आडवाणी, शांता कुमार व मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज ही नहीं, बल्कि दूसरे अनेक नेता मोदी-शाह से निकटता नहीं रख सके। जमीनी स्तर के वर्करों की बात अनसुनी कर दी गई। पश्चिम बंगाल में पार्टी के उच्च नेतृत्व को सलाह दी गई कि वह ममता बनर्जी की पार्टी तोड़ने की बजाए खुद को स्थापित करने पर ध्यान दे। पार्टी इसके विपरीत चली। इससे पहले हरियाणा में भी यही हुआ था कि चुनाव के मौके पर विपक्षी नेताओं को पार्टी में शामिल कर टिकट थमा दी गई। नतीजा, दोनों राज्यों में ऐसे अधिकांश नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि हरियाणा में जजपा के सहारे पार्टी सत्ता में आ गई। केंद्रीय स्तर पर मोदी के खिलाफ भाजपा नेताओं एक गुट खड़ा हो रहा था। इन्हें लगता था कि मोदी और उनकी टीम के दो तीन सदस्य ही सारे फैसले करते हैं। आरएसएस को भी कोई नहीं पूछ रहा है। ये बातें लोगों के बीच भी घूम रही थी। अब पीएम मोदी ने कैबिनेट सर्जरी कर ऐसे लोगों की जुबान बंद कर दी है। विपक्ष को भी आलोचना का ज्यादा मौका नहीं मिलेगा। पुराने चेहरों को हटाना और नए लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल कर मोदी ने यह बताने का प्रयास किया है कि जो कार्यकर्ता काम करेगा, उसे सम्मान मिलेगा। बाबुल सुप्रियो का यह कहना कि मंत्री पद छीनने की सूचना देने का तरीका सही नहीं था, इससे पीएम मोदी की नाराजगी और मंत्रियों के रिपोर्ट कार्ड का अंदाजा लगाया जा सकता है।