सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) से संबंधित किसी व्यक्ति के खिलाफ घर की चारदीवारी के अंदर किसी गवाह की अनुपस्थिति में की गई अपमानजनक टिप्पणी अपराध नहीं है। इसके साथ ही न्यायालय ने एक व्यक्ति के खिलाफ एससी-एसटी कानून के तहत लगाए गए आरोपों को रद्द कर दिया, जिसने घर के अंदर एक महिला को कथित तौर पर गाली दी थी।
न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति का अपमान या धमकी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति कानून के तहत अपराध नहीं होगा। जब तक कि इस तरह का अपमान या धमकी पीड़ित के अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित होने के कारण नहीं है। न्यायालय ने कहा कि एससी व एसटी कानून के तहत अपराध तब माना जाएगा जब समाज के कमजोर वर्ग के सदस्य को किसी स्थान पर लोगों के सामने अभद्रता, अपमान और उत्पीड़न का सामना करना पड़े।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव, न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा, तथ्यों के मद्देनजर हम पाते हैं कि अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, 1989 की धारा 3 (1) (आर) के तहत अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप नहीं बनते हैं। इसलिए आरोपपत्र को रद्द किया जाता है। इसके साथ ही न्यायालय ने अपील का निपटारा कर दिया।
पीठ ने कहा कि हितेश वर्मा के खिलाफ अन्य अपराधों के संबंध में प्राथमिकी की कानून के अनुसार सक्षम अदालतों द्वारा अलग से सुनवाई की जाएगी। पीठ ने अपने 2008 के फैसले पर भरोसा किया और कहा कि इस अदालत ने सार्वजनिक स्थान और आम लोगों के सामने किसी भी स्थान पर अभिव्यक्ति के बीच अंतर को स्पष्ट किया था।
न्यायालय ने कहा कि यह कहा गया था कि यदि भवन के बाहर जैसे किसी घर के सामने लॉन में अपराध किया जाता है, जिसे सड़क से या दीवार के बाहर लेन से किसी व्यक्ति द्वारा देखा जा सकता है तो यह निश्चित रूप से आम लोगों द्वारा देखी जाने वाली जगह होगी। पीठ ने कहा कि प्राथमिकी के अनुसार, महिला को गाली देने का आरोप उसकी इमारत के भीतर हैं और यह मामला नहीं है जब उस समय कोई बाहरी व्यक्ति सदस्य (केवल रिश्तेदार या दोस्त नहीं) घर में हुई घटना के समय मौजूद था।