अप्रैल 2020 से अप्रैल 2021 के बीच कोरोना काल के एक साल में 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। आखिरी बार जब गरीबी पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट आई थी, तब 10 सालों में केवल 27 करोड़ 30 लाख लोग गरीबी से बाहर निकल पाए थे। यानी कोरोना के एक साल ने गरीबी के मामले में देश को करीब 8 से 9 साल पीछे ढकेल दिया है।
हालिया रिपोर्ट अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनबल इम्प्लॉयमेंट की है। ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021- वन ईयर ऑफ कोविड-19’ नाम की इस रिपोर्ट में नौकरी जाने से जीवन में पड़ने वाले असर पर स्टडी की गई है। इसमें 23 करोड़ लोगों के गरीबी रेखा के नीचे चले जाने का दावा किया गया है। इससे देश के 2006 वाली हालत में लौटने की स्थिति बन गई है।
UN की रिपोर्ट के अनुसार साल 2005-06 में भारत के करीब 64 करोड़ लोग (55.1%) गरीबी में थे, लेकिन तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार की योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 (मनरेगा) के चलते इसमें काफी सुधार हुआ, क्योंकि 80% गरीब गांव में रहते थे। साल 2015-16 तक देश में गरीबी घटकर 36.9 करोड़ (27.9%) रह गई थी।
गरीबी रेखा से मिडिल क्लास तक पहुंचने में सात पीढ़ियों का समय लग जाता है
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) की ग्लोबल सोशल मोबिलिटी रिपोर्ट 2020 के मुताबिक भारत के किसी गरीब परिवार को मिडिल क्लास में आने में सात पीढ़ियों का समय लग जाता है। ऐसे में 23 करोड़ लोगों को कोरोना ने गरीबी रेखा से नीचे ढकेल दिया है, उनको वापस आने में कई साल लग सकते हैं।
हालात और बिगड़ने के संकेत दे रही है नई स्टडी
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिसर्च इससे एक कदम आगे जाती है। इसके अनुसार, संगठित क्षेत्र में काम करने वाले करीब 50% लोगों को या तो नौकरियां गंवानी पड़ी हैं या फिर उनकी सैलरी कम की गई है। जिनकी नौकरियां गईं, उनमें 7% पुरुषों को दोबारा काम नहीं मिला, लेकिन महिलाओं में ये आंकड़ा 46.6% है। यानी कोरोना काल में जिन महिलाओं की नौकरी गई, उनमें से आधी को आज तक काम ही नहीं मिला।
सीएमआई के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल से जून के बीच करीब दो करोड़ नियमित सैलरी पाने वाले नौकरीशुदा लोगों की जॉब चली गई थी। जबकि असंगठित क्षेत्र यानी दिहाड़ी करने वालों का आंकड़ा इसमें शामिल करें तो ये संख्या 12 करोड़ के पार पहुंच गई थी।
गरीबी किसे कहते हैं?
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अर्थ इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर जेफ्री सैश कहते हैं, ‘गरीबी का मतलब रोजमर्रा की जिंदगी के लिए जरूरी चीजों की कमी है। जैसे वह गरीब है जिसे खाना, पानी और आम चिकित्सा सुविधाएं भी नहीं मिल पा रहीं।’
हालांकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) इन चार पैमानों पर गरीबी नापता है-
- गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की उपलब्धता
- टेक्नोलॉजी तक पहुंच
- काम के अवसर, सैलरी और काम का ढंग
- सामाजिक सुरक्षा
विश्व बैंक को बताने के लिए भारत ने 2010 में तेंदुलकर समिति बनाई थी। इसके अनुसार शहरों में रहने वाला परिवार अगर महीने में 859 रुपए 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 672 रुपए 80 पैसे से कम खर्च करते हैं, वो गरीब हैं।
सरकार ने 2017-18 में रोजाना खर्च पर सर्वे कराया था, लेकिन आंकड़े नहीं जारी किए। तेंदुलकर समिति का आकलन 2010 में कराया गया था। हर पांच साल में होने वाली घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण रिपोर्ट आखिरी बार 2017-18 में आनी थी, लेकिन भारत सरकार ने जारी नहीं की थी। इसमें कुछ गुणवत्ता की कमियां बताई गईं। इसके आधार पर देश में गरीबी का अंदाजा लगाया जाता है। विश्व बैंक ने इस पर चिंता व्यक्त की थी।
फिलहाल वैश्विक तौर पर बहुआयामी गरीबी को चार क्षेत्रों (शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर, आवास की गुणवत्ता) के 38 संकेतकों पर नापते हैं। फिलहाल बहुआयामी गरीबी के मामले में भारत 0.123 अंकों के साथ विश्व के 107 देशों में से 62वें स्थान पर है।