सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद दिल्ली पहुंचे किसान, एकजुटता और तैयारी से हुए कामयाब !

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‘चलो दिल्ली’ के नारे के साथ किसानों ने दिल्ली कूच करने का जो उद्देश्य रखा था, उसे आंदोलन के दूसरे ही दिन पूरा करने में किसान सफल रहे। दिल्ली की सीमा तक पहुंचने के लिए इन किसानों को आठ बड़े बैरिकेड पार करने पड़े और जगह-जगह सुरक्षाबलों की घेरा बंदियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ना पड़ा। लेकिन, ये सब कुछ इतने योजनाबद्ध तरीके से किया गया कि प्रशासन की तमाम रणनीति किसानों को रोकने में विफल साबित हुई।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार ही हुआ जब आंदोलनकारियों को रोकने के खुद प्रशासन ने ही सड़कें खोद डाली हों। अमूमन आंदोलन कर रहे लोगों पर सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगते हैं। लेकिन, इस आंदोलन में यह आरोप खुद सरकार पर ही लग रहे हैं। पंजाब और हरियाणा से चले किसान ये जानते थे कि प्रशासन उन्हें रोकने की हरसंभव कोशिश करेगा। लिहाजा उन्होंने इससे निपटने की तैयारी पहले से ही कर ली थी। किसानों के जत्थों में ऐसे युवा शामिल थे जो ट्रैक्टर प्रतियोगिताओं के विजेता रहे हैं और कई तरह के स्टंट ट्रैक्टर से करते रहे हैं। इन युवाओं के लिए भारी से भारी बैरिकेड को ट्रैक्टर की मदद से साफ कर देना चंद मिनटों का ही खेल था।

लिहाजा प्रशासन ने जहां भारी बोल्डर और लोहे के बैरिकेड लगाकर भी रास्ते बंद किए थे, वहां से भी किसानों के निकलने की राह इन युवाओं की मदद से बेहद आसान हो गई। स्थानीय लोगों से लगातार इनपुट लेते रहना भी किसानों की रणनीति का बेहद अहम हिस्सा रहा। जहां भी प्रशासन ने हाईवे को बड़े बैरिकेड और सुरक्षाबलों की तैनाती से ब्लॉक किया था, उन जगहों को स्थानीय किसानों की मदद से आंदोलनकारियों ने बाइपास किया और हाइवे से सटे खेतों से होते हुए किसानों के जत्थे आगे बढ़ निकले। समालखा के पास तो संत निरंकारी आश्रम ने अपने खेतों को किसानों के लिए खोल दिया, जहां से हजारों किसानों का जत्था हाईवे को बाइपास करते हुए आगे बढ़ गया।

इस पूरे रास्ते में कई जगह स्थानीय पुलिस ने किसानों पर वॉटर केनन भी चलाई, लेकिन इसके बाद भी किसानों के आगे बढ़ने की गति में खास कमी नहीं आ सकी। आगे बढ़ने के लिए जितनी भी चीजें जरूरी हैं, वे सभी चीजें किसान अपने साथ ही लेकर चलते मिले। मसलन किसानों के साथ सिर्फ बैरिकेड तोड़ने के लिए विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि कई मैकेनिक भी शामिल रहे ताकि किसी भी गाड़ी के खराब होने की स्थिति में उसे तुरंत ही ठीक किया जा सके। इतना ही नहीं, आंदोलनकारी किसानों के जत्थों में डॉक्टर तक शामिल रहे जो मेडिकल इमरजेंसी आने पर हालात संभाल सकें।

आम आदमी पार्टी से सांसद रहे डॉक्टर धर्मवीर भी किसानों के इस जत्थे में शामिल रहे जो बीते दो दिनों से आंदोलनकारी किसानों को मुफ्त मेडिकल सलाह भी दे रहे हैं। गले में स्टेथेस्कोप डाले और जेब में कुछ जरूरी दवाएं लिए हुए डॉक्टर गांधी इस आंदोलन के दौरान ही दर्जनों किसानों की जांच कर चुके हैं। कोरोना से इस दौर में इतना बड़ा आंदोलन करना क्या एक डॉक्टर के नजरिए से सही है?

इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘कोरोना का डर तभी तक लगता है जब तक पीपे में आटा रहे और घर में वेतन या पेंशन आती रहे। जिस दिन घर में आटा खत्म हो गया या पेंशन आनी बंद हो गई उस दिन कोरोना का डर खत्म हो जाता है।’ डॉक्टर गांधी आगे कहते हैं, ‘कोरोना के बचाव के लिए जो भी चीजें जरूरी हैं उसका हम ध्यान रख रहे हैं। हम सभी ने मास्क लगाए हुए हैं। अब सरकार कोरोना के बहाने जो किसानों को दिल्ली आने से रोकना चाहती है, ये सरासर बेमानी है। जब बिहार में खुद प्रधानमंत्री हजारों की भीड़ को चुनावी रैली में संबोधित करने जाते हैं, तब इन लोगों को क्या कोरोना की चिंता नहीं सताती? हम पूरी सावधानी के साथ दिल्ली पहुंचे हैं और अब अपनी बातें मनवा के ही यहां से लौटेंगे।’

आंदोलन के दूसरे की शाम तक सैकड़ों ट्रैक्टर और किसानों की अन्य गाड़ियां दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर पहुंच चुकी थीं। यहां पहुंचने के बाद सुरक्षाबलों और किसानों के बीच तीन-चार बार टकराव हुआ जिसमें पुलिस की तरफ से वॉटर केनन और आँसू गैस के गोले दागे गए और फिर दोनों छोर से पत्थर भी चलाए गए जिसके चलते कुछ किसानों को चोट भी आई। लेकिन, यह स्थिति जल्द ही नियंत्रण में आ गई और फिर किसान सिंधु बॉर्डर पर ही लंगर डालकर बैठ गए।

हालांकि इस वक्त तक किसानों को दिल्ली में दाखिल की अनुमति दे दी गई थी। लेकिन, अब किसानों ने दिल्ली में दाखिल होने की जगह हाइवे पर ही ठहरे रहने का विकल्प चुना। किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी बताते हैं, ‘पंजाब के किसान भाई नहीं चाहते कि हम लोग दिल्ली में जाकर किसी कोने में क़ैद कर दिए जाएं लिहाजा यहीं रुक जाने का फैसला लिया गया। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि पहले तो सरकार ने हमें रोकने के लिए सड़कें तक खोद डाली ताकि हम दिल्ली न पहुंच सकें। जब हम दिल्ली पहुंच गए तो अब अनुमति देने का क्या मतलब है। अब हम भी अपने तरीकों से काम करेंगे। हम यहां दिल्ली में घिर जाने के लिए नहीं बल्कि दिल्ली को घेरने के लिए पहुंचे हैं।’किसानों का ‘चलो दिल्ली’ आंदोलन क्या दिल्ली पहुंचने के साथ ही सफल मान लिया जाए?

इस सवाल के जवाब में गुरनाम सिंह चढूनी कहते हैं, ‘नारा दिल्ली पहुंचने का था और हम पहुंच भी गए जबकि सरकार ने हमें रोकने के लिए पूरा जोर लगा दिया था। इस नजरिए से देखें तो आंदोलन सफल ही रहा है। लेकिन इस आंदोलन की असली सफलता तो तब है जब ये कॉर्पोरेट के हितों के लिए बनाए गए काले कानून रद्द हों। हम उसी उद्देश्य से यहां आए हैं और सरकार ध्यान रखे कि हम इससे पहले लौटने के लिए तो बिलकुल नहीं आए हैं।’

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