हाल ही में विधानसभा और लोकसभा के दो सीटों से चुनाव लड़ने की याचिका को उच्चतम न्यायालय ने इस टिप्पणी के साथ खारिज कर दिया कि यह राजनीतिक लोकतंत्र से युक्त नीतिगत मामला है। गौरतलब है कि 1996 के पूर्व कोई भी व्यक्ति असीमित निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी के रूप में चुनावी दंगल में प्रवेश कर सकता था, लेकिन तत्कालीन सरकार के दौरान मात्र दो निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरने का कानून 1996 में पास किया गया।
यह सही है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 33(7) में संशोधन का अधिकार संसद को है, लेकिन इस याचिका के निष्पादन के समय विडंबना यह दिखी कि बिना सरकार की मंशा पूछे न्यायालय ने विषय को अस्वीकृत कर दिया। न्यायालय द्वारा इतने गंभीर मामले, जिनमें विधि आयोग और चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को अनुशंसा की कि किसी भी व्यक्ति को एक निर्वाचन क्षेत्र से ही चुनाव लड़ने की कानूनी व्यवस्था लागू की जाए, इसमें केंद्र सरकार दोनों अनुशंसा पर दीर्घकाल से चुप्पी साधे हुई है, क्योंकि वह नहीं चाहती कि चुनावी मैदान में दो सीटों का मोह समाप्त कर दिया जाए।
दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले अपनी प्रतिष्ठा पोषण की खुराक कम नहीं करना चाहते, क्योंकि एक सीट से हारने के बाद वे दूसरी सीट से जीत की आस बनाए रखते हैं। आश्चर्य है कि इस विषय पर सभी राजनीतिक दलों में एकता और सहमति है। किसी भी दल ने आज तक अपने चुनावी एजंडे या घोषणा पत्र में चुनावी स्वच्छता का एक भी सूत्र मतदाताओं के समक्ष नहीं रखा है।
चुनाव में निर्मलता के पाठ पढ़ाने में निपुण हमारे नेता जब अपने संबोधन में चुनाव सुधार की बात कहते हैं, तो लगता है कि भारतीय लोकतंत्र के उत्थान में एक नूतन अध्याय खुलेगा। मगर फिर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। एक सीट पर दोबारा चुनाव से जनता जनार्दन के धनराशि का जो अपव्यय हो रहा है, शायद इस पर महालेखा परीक्षक सह नियंत्रक की भी नजर नहीं गई है, क्योंकि इसे वे कानूनसम्मत मानते होंगे।
संसद से निर्मित अनेक कानूनों को अपने संवैधानिक अधिकार क्षेत्र के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने रद्द कर ऐतिहासिक कृत्य किया है तो सवाल लाजिमी है कि विधि आयोग और चुनाव आयोग द्वारा अनुशंसित विषय को बिना गहराई से छानबीन किए याचिका को खारिज कर देना कई संशय और द्वंद को जन्म देता है। केंद्र सरकार से इस मामले में पूछने में कोई वैधानिक बाधा नहीं थी और ऐसा होने से शायद सरकार की लंबी अवधि से जारी एकपक्षीय मौनव्रत टूट सकता था।
किसी निर्वाचन क्षेत्र से दोबारा चुनाव की स्थिति में मतदाताओं की भावना भी प्रभावित होती है कि उसने जिस सीट से अपने प्रतिनिधि का चयन काफी सोच-विचार कर किया, अब उसके त्याग पत्र के कारण फिर दूसरे अभ्यर्थी के चयन के लिए सिर खपाने की नौबत आ गई है जो सरासर नाइंसाफी है। बुनियादी सवाल यह है कि लोकतंत्र के भाग्य विधाता जब सिर्फ अपनी सुविधा के हित को ध्यान में रखते हुए ही कानूनों की व्याख्या करेंगे और उसे लागू करेंगे तो फिर कथनी को दार्शनिक दर्पण में दिखाने की क्या जरूरत है।
दागी जनप्रतिनिधियों के मुकदमे के लिए गठित विशेष न्यायालय ने इक्के-दुक्के मामले का ही निस्तार किया है जो सिद्ध कर रहा है कि राजनीतिक बिसात पर खेले जा रहे मोहरे के दांवपेंच निराले हैं। काश कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की प्रबलता प्रजातंत्र के नूतन सूर्योदय की रश्मियों से जन-मन को आंशिक रूप से भी तृप्त कर पाता।
विशेष रिपोर्ट-
प्रवीण यादव
सह-संस्थापक : ELE India News